Wednesday, September 27, 2017

ख़ामोशी है .....





ज़िन्दगी होश में है मेरी या फिर ये जहाँ बेहोश है,
दर्द देखती नहीं है दुनिया या फिर ये देखकर ख़ामोश है,
हर शक्श अपने आप को हमदर्द सबका समझे है,
वक़्त आने पर वही हमदर्द फिर क्यूँ ख़ामोश है।

जब किसानों पर मुसीबत बिन बादल ही बरसे है ,
तब वो नेता रुपयो के सेज़ पर लेटा हुआ ख़ामोश है
हज़ारो रुपये की पोशाक जो अपने बदन पर लपेटे है,
उनके चंद रुपये की मोल भाव पर गरीब फिर ख़ामोश है।

सहरा में अपने उम्मीदों का कोई शजर कैसे मिले,
चुभ रहे है पाँवों में काँटे फिर भी जहाँ ख़ामोश है,
अब किसको यहाँ इल्ज़ाम दे और फरियाद भी किससे करें,
देख अपने जहाँ की  हालत वो ख़ुदा भी ख़ामोश है।

~वीर भद्र सांकृत्यायन
२६-०९-२०१७